परमात्मा की खोज
1-मनुष्य जन्म का असली उद्देश्य
संत परमात्मा के प्यारे पुत्र
होते हैं। उन्हे दया का दूत बना कर भेजा जाता है। ताकि वे दुख-दर्द से भरे इस
संसार में कराहते हुये लोगो को छुटकारा दिला कर अपने उस निज धाम में ले जाये। जो
चेतनता, अमरता और परम आनन्द का स्थायी निवास स्थान
है। वे कोई नया गिरजा, धर्म, जाति या
सम्प्रदाय नहीं बनाते। उन्हे इनसे कोई वास्ता नहीं और न ही उन्हे किसी तरह के
रीति-रिवाज या समारोह में कोई दिलचस्पी है। वे तो सीधी बात कहते हैं कि मनुष्य
जन्म का असली उद्देश्य सत्य की खोज करना है। और यह खोज केवल मनुष्य जीवन में ही
सफलतापूर्वक की जा सकती है।
2- चौरासी लाख योनियों में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है
इस पृथ्वी पर 84 लाख योनियों
में से केवल मनुष्य ही परमात्मा से मिलाप प्राप्त कर सकने की शक्ति और योग्यता
रखता है। पशुओं, पक्षियों, पेड़-पौधों या और दूसरे निचले स्तर के प्राणियों को परमात्मा प्राप्ति का
ज्ञान नहीं हो सकता। देवी-देवताओं और फरिश्तों को भी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो
सकता। मनुष्य जीवन के गिनती के दिन ही वह अवसर है, जिसमें
परमात्मा की खोज की जा सकती है।
इस खोज के लिए मनुष्य को कहीं
बाहर नहीं जाना पड़ता। हमारा शरीर ही वह प्रयोगशाला है जिसके अन्दर जाकर यह खोज की
जा सकती है। परमात्मा को हमें अपने खुद के अन्दर ढूँढना है। खुदा की बादशाहत हमारे
अन्दर ही है। हमारा शरीर ही वह मन्दिर है जिसमे परमात्मा रहता है, और इसी में उसकी तलास करनी चाहिये।
3-भेदी की आवश्यकता
परमात्मा की बादशाहत में प्रवेश पाने के लिये
हमें एक रास्ता दिखाने वाले मार्ग-दर्शक की जरूरत है। बिना किसी अनुभवी मल्लाह की
सहायता के हम रूहानियत के अनजाने अथाह समुद्रों को पार नहीं कर सकते। अगर हमारी नाव
का मल्लाह ऐसा है जो इस समुद्र को तथा इसके खतरनाक तूफानों को खूब अच्छी तरह जानता है, तो बेशक हम सही-सलामत उस पर पहुँच जायेंगे।
बिन गुरु भावनिधि तरे नहीं कोई।
ज्यों बिरंच मुनि शंकर सम होई॥
बिना किसी पूर्ण गुरु की शरण में गये, इस 84 के भवसागर से कोई पार नहीं जा सकता है, चाहे वह कितना ही बहादुर हो, मुनि तपस्वी ज्ञानी हो, या शंकर जी ही क्यों न हों।
यह सब केवल मनुष्य जन्म में ही सम्भव है। यदि मनुष्य जन्म से फायदा न उठाया, यानी पूर्ण गुरु की शरण नहीं ली, तो फिर क्या पता लाखों करोणों साल बाद मनुष्य जन्म की बारी आये। विचार कीजिये।
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