अपने आप की पहचान और परमात्मा की प्राप्ति
अपने आप की पहचान और परमात्मा की प्राप्ति
-----------------------------------------------------
1-मन-माया के दायरे से बाहर निकलकर
परमात्मा
की पहचान करने से पहले अपने आप की पहचान करना जरूरी है। अपने आप को पहचानना क्या
है ? मन और
माया के दायरे से बाहर निकलना। मन को आखों के केंद्र पर पूर्ण संत के अनुसार
एकाग्र करने की कोशिश करना और इसे अपने ठिकाने पर लाना। ताकि आत्मा मन के पंजे से
आजाद हो सके। आत्मा को मन की कैद से आजाद करना ही आत्मज्ञान प्राप्त करना है। यही
अपने आप को पहचानना है।
हमारा
मन दुनिया की लज्जतों, दुनिया के कामधंधो और इंद्रियो के भोगों , मन बड़ाई
का आशिक है। जब तक मन को दुनिया की लज्जतों से ऊँची और सच्ची लज्जत नहीं मिलती, यह इन्हे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। इसलिए हम अपनी सूरत को समेटकर
आंखो के केंद्र पर लाते है और अंतर में शब्द के साथ जोड़ते है। अंतर में उस अमृत को
चख लेते हैं, जिसे हजरत ईसा ने '
लिविंग वाटर ' कहा है। जो हमें अमर जीवन प्रदान करता है।
2- आत्मा का मन और इंद्रियो के बंधन से आजाद होना
बादलो
का पानी कितना साफ होता है, लेकिन बारिश के बाद वही पानी मिट्टी के साथ मिलकर बहुत गंदा हो जाता है।
उसमे से बदबू तक आने लगती है। वह अपने श्रोत को भूल जाता है। वह भूल जाता है कि
कभी वह बिलकुल निर्मल था। बल्कि अपने आपको गंदगी
का ही एक हिस्सा समझ लेता है और अपनी हस्ती ही खत्म कर लेता है। परंतु सूरज
की गर्मी से जब वह भाफ बनकर गंदगी को छोड़ देता है, तब उसे
पता चलता है कि मैं कोई और चीज हूँ और गंदगी कोई और चीज है। मैं फुजूल में ही उस
गंदगी से मिलकर अपने आपको उसका हिस्सा समझ रहा था। इस तरह ज्यो ही वह गंदगी का साथ
छोडता है, उसे समझ आ जाती है कि वह कुछ और है और गंदगी कुछ
और। अब वह अपने श्रोत, आसमान के बादल के बारे में सोचने लगता
है। तब वह वापस जाकर बादल मे समा जाता है।
यही
बात हमारी आत्मा पर भी लागू होती है। आत्मा, परमात्मा रूपी समुद्र की बूंद है। इसने मन का
साथ ले लिया है, और मन पहले से ही इंद्रियो का गुलाम बन चुका
है। हम अपने निज घर को, अपने मूल रूप को भूल चुके हैं। जब हम
मन को इंद्रियो से समेटकर वापस इसके मूल स्थान पर, दूसरे रूहानी
मण्डल त्रिकुटी या ब्रह्म में ले जाते हैं, तो आत्मा मन के
पंजे से आजाद हो जाती है। फिर हमे पता चलता है कि हम कौन हैं और हम अपने श्रोत के
बारे में सोचते हैं। तब मन तथा इंद्रियो के पंजे से मुक्त हुई आत्मा वापस जाकर
अपने श्रोत में समा जाती है।
सुकरात
ने भी कहा है कि , "अपने आपको पहचानो।" परमात्मा को पहचानने से पहले अपने आपको पहचानना
जरूरी है। जब तक हमें यह पता नहीं लगता कि हम कौन है, हम
परमात्मा को कैसे जान सकते है ?हम उसके स्वरूप की कल्पना
कैसे कर सकते है ?
Comments
Post a Comment